इतना अँधेरा !
कहाँ से आया इतना सारा अँधेरा
ये अँधेरा इतना घना क्यूँ है
सारी सड़कें गलियां बगीचे बाज़ार
पता नहीं मैं कहाँ हूँ
कोई आवाज़ भी नहीं है
पता नहीं ये सब्ज़ी का बाजार है या मछली का
दूध का या मिठाइयों का या सोने चांदी का
ये अँधेरा सिर्फ बाहर की दुनिया में ही नहीं है
ये मेरे घर के आँगन में, सीढ़ियों पर, रसोई में
और शायद मेरे दिल में
मेरे रोम रोम में घर कर चुका है
शायद मेरा चेहरा भी काला हो गया होगा
मेरे हाथ पैर, पेट, पीठ
सब कुछ अँधेरे रंग में रंग गए होंगे
शीशा भी कैसे देखूं
शीशा ही पता नहीं कहाँ है
कुछ भी नज़र नहीं आ रहा
अपनी हथेली तक नहीं
क्या ये रात है?
पर कहाँ गया वो चाँद ?
वो चाँद, वो टिमटिमाते सितारे
मेरी रोशनी के सहारे
आज ठंड भी बहुत है
काश ऊपर कुछ गरम होता
कोई ऊनी कोट या कम्बल
या - सिर्फ तुम्हारे होने का एहसास
तुम्हारी नज़दीकी की गरमाहट
नरम हाथों की पकड़
उन खूबसूरत आँखों की रोशनी
आलिंगन की गरमी
ज़िन्दगी कितनी खाली सी हो चुकी है
कितनी नीरस, ठंडी
अब इस घने अँधेरे में मैं तुम्हें कहाँ ढूँढूँ
और कैसे ढूँढूँ
किस तरफ जाऊं
इस दुनिया में कोई ना दिखाई दे
कोई बात नहीं
पर तुम न दिखोगी
तो ये ऑंखें किस काम की
मुझे इनकी ज़रुरत ना होगी
तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में न हो
तो मेरी नब्ज़ किस काम की
तुम्हारा सर मेरे सीने पर न हो
तो ये धड़कन किस काम की